लक्ष्मण समेत कई लोग है टिकट के दावेदार…
बलिया। रामायण की सबसे बड़ी घटना भगवान श्रीराम का माता सीता एवं छोटे भाई लक्ष्मण के साथ वनवास गमन को माना जाता है। बलिया के एक विधानसभा में भी दो नेताओं की जोड़ी को पहले राम-लक्ष्मण की जोड़ी का उपमा दिया जाता था। यह जोड़ी जबतक सलामत रही दोनों शक्तिशाली रहे और पार्टी तथा जनपद में वर्चस्व कायम रहा। इन्हें कभी बड़े संकट का सामना तक नहीं करना पड़ा। लेकिन सियासी जोड़ी टूटते ही दोनों अलग-थलग पड़ गए। इनमें से एक राजनीति के महारथी हैं और दूसरे उनके अनुयायी, लेकिन पिछले चुनाव में दोनों के सारे अस्त्र-शस्त्र फेल हो गए।
राम से दूर रहकर लक्ष्मण ने सियासत में नाम और सम्मान जरूर कमाया, लेकिन इसके बदले बहुत कुछ गंवाया भी। सपा के टिकट से विधानसभा चुनाव हारने के बाद लक्ष्मण का आत्मविश्वास काफी डगमगा गया है। इस बार वह टिकट के दावेदार जरूर है, लेकिन पार्टी हुक्मरान इस पर विचार जरूर करेंगे। उनके प्रयास से कितनी कामयाबी मिलती है यह तो आने वाला समय ही बताएगा।
यह सभी जानते हैं कि एकजुटता में बड़ी ताकत होती है। पांच साल के राजनीतिक वनवास के बाद शायद आगामी विधानसभा चुनाव में ये कुछ सीख लें। अगर ऐसा नहीं हुआ तो एक बार फिर जंग-ए -मैदान में आमने-सामने होना तय है। अगर एक ही दल में रहे, तो उसी झंडे-डंडे के नीचे समझौता करना होगा। इतना ही नहीं एक-दूसरे के समर्थन में वोट भी मांगना पड़ेगा। पिछले चुनावों पर एक नजर डालें तो इनके नाकामयाब होने के पीछे कई राज छूपे हैं। रामयण में यह भी बात सभी जानते हैं कि माता कैकेयी हमेशा राम को अपने पुत्र से भी ज्यादा प्रेम करती थी। दोनों पुत्रों में कोई भेद-भाव नहीं किया। लेकिन उन्हीं की वजह से राम को राजगद्दी की जगह वनवास भी मिला। ठीक इसी प्रकार इस विस क्षेत्र में सपा मुखिया मुलायम सिंह राम-लक्ष्मण की जोड़ी से बहुत प्यार करते थे। लेकिन राजनीतिक वर्चस्व को लेकर खटास, सियासत के पैंतरे और पार्टी और परिवार की रार ने दोनों को दोराहे पर लाकर खड़ा कर दिया। क्योंकि सपा के संस्थापक और उस समय दल के मुखिया रहे मुलायम सिंह यादव और उनके भाई शिवपाल यादव की तब एक नहीं चली और उनके चहेते नेता की दुर्गति हो गई। इसके बाद उनके करीबी नेताओं का प्रदेश में क्या हाल हुआ , यह किसी से छूपा नहीं है ? ऐसे में हमेशा राम-लक्ष्मण से अटूट प्रेम करने वाले दल के नेताओं ने एक मिनट में राम से रिश्ता तोड़ लिया और लक्ष्मण को राजा बनाने की सोच ली। जैसे माता कैकेयी ने भरत को राजगद्दी दिलाने के लिए राम को त्याग कर वनवास भेजने का संकल्प ले लिया। यहां भी लक्ष्मण मोह में पार्टी के नये राष्ट्रीय अध्यक्ष ने न केवल टिकट दिया, बल्कि लक्ष्मण को कामयाब बनाने में पूरी ताकत तक लगा दी थी। लेकिन बिना राम के सहयोग के लक्ष्मण की नैया पार होना संभव नहीं था। यही हाल दूसरी तरफ भी देखने को मिला, जब राम ने पार्टी बदल दी और दूसरी पार्टी से चुनाव मैदान में उतरे तो उनको भी लक्ष्मण का समर्थन न मिलना उनकी हार का कारण बना। वह भी चारो खाने चित हो गए। दोनों अपने मूंछ की लड़ाई लडऩे के बाद अब वनवास काट रहे हैं। यह पांच साल का वनवास अब खत्म होने का समय आ गया, लेकिन रिश्ते में खटास अब भी बरकरार है।
इस बार यह जोड़ी क्या गुल खिलाती है, इस उम्मीद में सभी टकटकी लगाए हुए हैं? अभी तो दोनों दिग्गज अपने-अपने टिकट का दावा ठोकेंगे। पार्टी नेतृत्व क्या फैसला लेगी इसका इंतजार करना होगा। टिकट के लिए भागा-दौड़ी मची है। लेकिन यह बात भी सत्य है कि भगवान राम का जन्म तो रावण वध के लिए हुआ था। वह अगर पहले राजा बन जाते तो, सीता हरण से लेकर रावण वध सब अधर में रह जाता। अब विधाता कलयुग के इन राम-लक्ष्मण से क्या कराना चाहते हैं, यह तो समय ही बताएगा। हालांकि दोनों नेताओं को अपने कर्म पर पूरा भरोसा है। इस बार जिसे टिकट मिलेगा, वही कार्यकर्ताओं के लिए नेता होगा। सपा कार्यकर्ता उसी का समर्थन भी करेंगे। अब देखना है कि इस बार राम को राजगद्दी तक पहुंचने के लिए टिकट मिलता है या फिर सपा में वनवास…?