हिंदी दिवस : एक बार फिर राष्ट्रभाषा से लेकर विश्वभाषा तक बनाने की उठेगी मांग..

आजादी के 75 साल बाद भी हिंदी की नहीं हुई समीक्षा
-आज हिंदी दिवस है। वर्ष 1949 में आज ही के दिन भारत की संविधान सभा ने भारत की राजभाषा (राष्ट्रभाषा नहीं) के रूप में देवनागरी में लिखी हिंदी को मान्यता दी थी। उसके साथ शर्त यह थी कि अगले पंद्रह सालों तक हिन्दी के साथ अंग्रेजी भी राजकाज की भाषा रहेगी और बाद में समीक्षा के बाद सिर्फ हिंदी को यह दर्ज़ा दिया जाएगा। यह और बात है कि समीक्षा का वह दिन आज़ादी के 75 साल बाद भी नहीं आया।
आज के दिन देश भर में, खासकर उत्तर भारतीय राज्यों में हिंदी को लेकर दिन भर सभाओं, विचार गोष्ठियों और सेमिनारों में अश्रु विगलित भावुकताओं के दौर चलेंगे। उसे राष्ट्रभाषा से लेकर विश्वभाषा तक बनाने की मांग होगी। आजतक हमारी हिंदी जिन कमियों की वज़ह से राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपेक्षित गौरव हासिल नहीं कर पाई है, उनकी बात कोई नहीं करेगा। आज के अर्थ-युग में किसी भी भाषा का सम्मान उसका साहित्य और उसके प्रति आपकी भावुकता नहीं, रोज़गार देने की उसकी क्षमता तय करती है। हमारी हिंदी कल भी भावनाओं की भाषा थी, आज भी भावनाओं की ही भाषा है ! हमारे दिलों में ठहरी हुई।उसके बारे में शायद दिमाग से सोचने की जरुरत ही नहीं महसूस की हमने।
हिंदी बोलने और समझने वालों की संख्या आज देश-दुनिया में हमेशा से ज्यादा है और अपनी भाषा में हमने कुछ अच्छा साहित्य भी रचा है, लेकिन आज के वैज्ञानिक और अर्थ-युग में किसी भाषा का सम्मान उसे बोलने वालों की संख्या और उसका विपुल साहित्य नहीं, ज्ञान-विज्ञान को आत्मसात करने की उसकी क्षमता तय करती है। सच तो यह है कि अपनी हिंदी में साहित्य के अलावा शायद ही कुछ काम का लिखा गया है। विज्ञान, तकनीक, प्रबंधन, अभियंत्रणा, चिकित्सा, प्रशासन, कानून जैसे विषयों की शिक्षा में हिंदी अंग्रेजी का विकल्प आज भी नहीं बन पाई है। निकट भविष्य में इसकी संभावना भी नहीं दिखती। हमारे जो युवा तकनीकी या व्यावसायिक विषयों की पढ़ाई करना चाहते हैं उनके पास अंग्रेजी के निकट जाने के सिवा कोई रास्ता नहीं। इन विषयों पर हिंदी में जो बहुत थोड़ी किताबें उपलब्ध हैं भी, उनकी भाषा और तकनीकी शब्दों का उनका अनुवाद इतना जटिल है कि उनकी जगह अंग्रेजी की किताबें पढ़ लेना आपको ज्यादा सहज लगेगा।
आज की युवा पीढ़ी में हिंदी के प्रति जो उदासीनता की भावना और अंग्रेजी के प्रति जो क्रेज है, वह अकारण नहीं है। आज की पीढ़ी अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ियों से ज्यादा व्यवहारिक है। शिक्षा की भाषा का चुनाव करते वक्त वह भावनाओं के आधार पर नहीं, अपने कैरियर और भविष्य की संभावनाओं को देखते हुए फैसले लेती है। हिंदी की समय के साथ न चल पाने की कमी के कारण हममें से ‘हिंदी हिंदी’ करने वाला शायद ही कोई व्यक्ति होगा जो अपनी संतानों को आज अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में नहीं पढ़ा रहा है। हम हिन्दीभाषी अपनी भाषा के प्रति जितने भावुक हैं, काश उतने व्यवहारिक भी हो पाते। तेजी से भागते के इस समय में वे वही भाषाएं टिकी रह जाएंगी जिनमें विज्ञान और तकनीक को आत्मसात करने की क्षमता है। इस कसौटी पर रूसी, चीनी, फ्रेंच, जापानी जैसी भाषाएं अंग्रेजी को चुनौती दे रही हैं। हिंदी ही नहीं, अपने देश की तमाम भाषाएं इस दौड़ में बहुत पीछे छूट गई हैं। यक़ीन मानिए कि अगर अगले कुछ दशकों में हिंदी को ज्ञान-विज्ञान और तकनीकी शिक्षा की भाषा के रूप में विकसित नहीं किया जा सका तो हमारी आनेवाली पीढ़ियां इसे गंवारों की भाषा कहकर खारिज कर देंगी।
-ध्रुव गुप्ता..

Please share

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!