शासन-सत्ता और मानव-स्वभाव का संबंध शाश्वत है..



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कमलाकान्त त्रिपाठी

बलिया। शासन-सत्ता और मानव-स्वभाव का संबंध शाश्वत है। इस पर जो बातें की जाएँगी, वे कल भी लागू होती थीं, आज भी लागू होती हैं, और आने वाले कल में भी लागू होंगी। पहले राजतंत्र था। तब लोगों को राजा से सत्ता मिलती थी। इसके लिए राजा को ख़ुश करना होता था। कौन हमेशा किसी को ख़ुश कर पाता है!प्राय: तो राजा को बरगलाना होता था। राजा के पास तक पहुँचने के लिए, उससे सत्ता हासिल करने के लिए, लोग क्या-क्या नहीं करते थे ! सैकड़ों तरीके थे। कला, साहित्य, नृत्य, संगीत, किस्सागोई, कूटनीति, सैन्य योग्यता। कुछ नहीं तो, राजा जिससे ख़ुश नहीं है, उसकी बुराई और राजा की बड़ाई।
आजकल जनतंत्र है। सत्ता जनता से मिलती है। सत्ता पाने के लिए जनता को ख़ुश करना होता है। कौन हमेशा किसी को ख़ुश कर पाता है ! तो जनता को बरगलाना होता है। जनता को बरगलाने के हज़ारों तरीके अपनाए जाते हैं। तरह-तरह के वादे किए जाते हैं। सब्ज़बाग दिखाए जाते हैं। आसमान के तारे तोड़ लाने की बात की जाती है।
लेकिन यह सब अब पुरानी तकनीक हो गई। इधर एक नई तकनीक ईजाद हुई है। जनता के एक हिस्से के मज़हब को महान सिद्ध किया जाता है, अन्य मज़हबों और उन्हें मानने वालों को खूँखार सिद्ध किया जाता है। संविधान में इसकी मनाही है तो क्या हुआ ? जिसे सभी करते हों उसे रोकना कठिन है, रोकने वाले भी वही करते हों तब तो असंभव है।
बरगलाने वाले जानते हैं, सभी मज़हबों में सीधे-सादे और खूंखार दोनों तरह के लोग पाए जाते हैं। लेकिन लोगों को बरगलाने के सिवा उनका अपना कोई मज़हब नहीं होता। वे बरगलाने के अपने मज़हब का पूरी निष्ठा से पालन करते हैं। जो बरगलाने की कला में माहिर होते हैं, वे जीत जाते हैं और सत्ता का सुख भोगते हैं। जो उन्नीस पड़ते हैं, वे हार जाते हैं और आगे फिर से जनता को बरगलाने की तैयारी में लग जाते हैं।
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