सियासी मैदान: बड़े ओहदे वाले नेताजी….

अखिलानंद तिवारी

बलिया। एक और विधानसभा की पड़ताल…। यहां भीं एक बड़े नेता पाए जाते हैं! विस चुनाव को लेकर माथापच्ची भी जारी है। नेताजी मंत्री और मुख्यमंत्री भले न हों, लेकिन उत्तर प्रदेश की बड़ी पंचायत में इन्हें बड़ा ओहदा प्राप्त है। ये सियासत के निपुण खिलाड़ी हैं, क्योंकि नेताजी की राजनीतिक पढ़ाई-लिखाई जेपी आंदोलन से पहले की है। उनके गुरु और राजनीतिक मित्र देश और प्रदेश के हुक्मरान तक रह चुके हैं। पिछले विस चुनाव को ले लीजिए, उनके विस क्षेत्र में मोदी-योगी की एक न चली और वह जीत हासिल कर अपने दल को मजबूत करने में सफल रहे। राजनीतिक गलियारे में इस बात की चर्चा होती है कि उनको मात देना आसान नहीं है। चुनाव आने पर खेल नेताजी का होता है, इसके रचनाकार भी वही होते हैे, इसमेें पात्र की भूमिका भी वहीं निभाते हैं और दर्शक भी…? इस बार आगामी विधानसभा को लेकर अभी से योजनाएं तैयार की जा रही हैं। विपक्ष में होने के बावजूद वह चर्चा र्में है।
नेताजी जिस विधानसभा में पाए जाते हैं, वहां का चुनाव इस बार रोचक होगा। माना जा रहा है कि नेताजी का साथ एक और दल देने जा रहा है, जिसका एक बिरादरी पर एकाधिकार है। पिछली बार अपनों से उपेक्षित बड़े दल की एक महिला नेता भी लोगों की पसंद बन चुकी है। अब देखना है कि इस बार नेताजी की सियासी चाल कहां तक कामयाब होती है। जबकि महिला नेता को भी मैदान में उतारने की तैयारी चल रही है। उनका इस बार प्रमुख पार्टी के झंडे के नीचे चुनाव लडऩा तय माना जा रहा है।
नेताजी को लेकर आम जनता भी नाखुश है। लोगों का मानना है कि हमारा किया पांच सालों तक फलीभूत होता रहा है। चुनाव के बाद कर्मभूमि से नेताजी भाग खड़े होते हैं और जनता की सुधि लेना तो दूर उनकी समस्या सुनने वाला भी कोई नहीं होता। यह विस क्षेत्र अति पिछड़ों और बाढ़ पीडि़तों का है। यहां की २० फीसदी जनता को दरिद्रता का पिंड छोडऩे वाला नहीं है। इसका भरपूर लाभ समय आने पर राजनेता उठाते हैं। क्योंकि वोट के समय राजनीति में उन्नयन करने वाले को हर किसी को खुश रखना होता है। बुजुर्ग कहते हैं कि नेताओं का मतदाताओं से प्रेम नदियों की तरह होता है। वह सामने तो होती है, लेकिन बहती नदी का जनता रोज स्मरण मात्र ही कर पाती है। इसी प्रकार नेताओं के पद पर रहते यह भाव जनता के भी हृदय में बना रहता है। इन्हें छोड़ भी नही पातीं, हर समय इनसे जुड़े रहने और मिलने से कुछ प्राप्त होने की उम्मीद लगाए रहती है। लेकिन नदी की धारा के साथ चुनाव से पहले किए वादे सागर में जाकर मिल चुके होते है। लेकिन नेताजी तो हमेशा सामने दिखाई देते हैं। देखा जाए तो भोली-भाली जनता कभी नहीं हारती, नेता चाहे जीते या हारे। क्योंकि जनता तो हर समय मस्त रहती है। वह चुनावी संघर्ष में शामिल ही नहीं होती, वह हारेगी कैसे ? यह सभी जानते हैं, जो विजय की आकांक्षा ही नहीं रखता, उसकी कोई पराजय नहीं होती। अब जीत-हार केवल उममीदवार, उनके कट्टर समर्थक और पार्टी की होती है। देखना है, इस बार नेताजी के धोती-कुर्ता और सदरी कितना लोगों को लुभा पाती है ? एक बात तय है कि नेताजी सत्ता में नहीं है। उनसे बहुत कुछ उममीद नहीं की जा सकती और सत्ताधारी पार्टी को वहां से जीत हासिल करनी है, तो जनता की सुख सुविधाओं का भी खयाल रखना होगा। दोनों ने जनता को छला है। अब जनता ही न्याय करे।…
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