डाला छठ बिहारवासियों की अनुपम भेंट


.

.

.

.
.
.
सूरज कुमार राय
बलिया। एक ऐसा पर्व जो संभवतः बिहार की धरती से प्रारंभ होकर आज देश के कोने कोने में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। वैसे तो सभी पर्व अपने अन्दर समानता, भाईचारा एवं आपसी मेल -मिलाप का संदेश समेटे रहते हैं। डाला छठ पर्व में कुछ खास है, जो और पर्वों से इसे अलग रखता है।
बचपन से इस पर्व का जैसे इन्तजार रहता था। इस त्योहार में जो संयम और आत्मानुशासन पारिवारिक एकता दिखाई देती है सम्भवत: किसी अन्य त्योहार में नहीं है, वह भी बिना किसी थोपे हुए कर्मकांड के। यहां पूजा उपासना का हर एक कार्य स्वत: स्फूर्त और प्राकृतिक लगता है। आखिर यह प्रकृति की उपासना का ही तो पर्व है
घर की महिलाएं जहाँ तीन दिन तक कठिन व्रत का पालन करती हैं, वहीं पुरुष वर्ग आवश्यक खरीदारी के साथ कई प्रकार के सामग्रियों की उपलब्धता सुनिश्चित करने में लगे रहते हैं। घाटों की साफ सफाई का काम हो या अन्य तैयारी बच्चे बड़े सभी बराबर की हिस्सेदारी निभाते हैं।
यह त्यौहार परिवार के साथ ही समाज को एकजुट करने में अपनी भूमिका निभाता है।
इसकी विलक्षणता ही है कि सभी अलग अलग होते हुए भी एक समूह होते हैं।
इस त्योहार की एक सबसे महत्वपूर्ण बात यह समझ में आती है कि तमाम संयम एवं अनुशासन के बावजूद किसी अनावश्यक कर्मकांड से परे है, और इसमें जातियों की विशिष्टता एवं सामान्यता का जरा सा भी स्थान नहीं है, घाटों पर हर जाति के लोग एक दूसरे के साथ बैठकर इस धरती को जीवन प्रदान करने वाली वास्तविक शक्ति की आराधना अपने तरीके से बिना किसी धार्मिक कर्मकांड एवं आडम्बर के करते हैं यही प्राकृतिक भी है।
छठ पूजा सामाजिक समरसता के साथ प्रकृति की उपासना का अनूठा पर्व है। प्रकृति में बिना हिंसा किए उपलब्ध अनेक कंद मूल फल जिनमें सात्विकता के साथ ही पोषकता है, इस बात का सीधा संदेश है। प्रकृति में सहज उपलब्ध वस्तुएं हमारे लिए आवश्यक और पर्याप्त हैं इसके अतिरिक्त मनुष्य को भोजन के लिए हिंसा करने की कोई जरूरत नहीं है।
इस धरती पर जीवन का मूल स्रोत सूर्य है, और जीवन चाहे जिस रूप में विकसित हुआ हो उसका कारण सूर्य ही हैं।
ऐसे में इस प्रत्यक्ष जीवन स्रोत को उन सभी वस्तुओं का अर्पण एक प्रकार से कृतज्ञता ज्ञापन ही है,
“तेरा तुझको अर्पण,,,,,”
का भाव लिए यह पर्व हमें प्रकृति की जीवन शक्ति और उस तत्व का भी एहसास कराते हैं जिसके कारण एक ही ऊर्जा स्रोत से उत्पन्न होने वाले जीवन में इतनी विविधता है। व्यावहारिक जीवन में आज पूरी दुनिया में नारी सशक्तिकरण और सुरक्षा की बात होती है जो हमारे लोक आस्था में बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के रचा बसा है, तभी तो,,,
“रुनुकी झुनुकी बेटी मांगिले,,,”
का स्वर गुंजायमान होता है जो बताता है कि पुरुष के साथ प्रकृति का होना उतना ही जरूरी है और इसमें असमानता कि कोई बात स्वीकार्य नहीं, शायद पहला पर्व/ पूजा है जिसमें आराध्य से पुत्री प्राप्ति की सहर्ष कामना की जाती है। यह उत्सव सूर्य के दोनों स्वरूपों (उदय और अस्त ) की आराधना करने का उत्सव है जो बताता है कि हर अंधकार के आगे एक स्वर्णिम सुबह है, और जो जीवन दायिनी शक्ति अस्त हो रही है वह भी पूजा के योग्य है और उसका उदय भी निश्चित है।
एक बात और है जब पूरी दुनिया आधुनिक वैज्ञानिकता का डंका पीट रही हो और यह बताने में की सूर्य कभी अस्त नहीं होता और धरती की गति ही उदय और अस्त का आभास दिलाती है, हजारों साल लगे, वहीं हमारे लोक आस्था में यह पहले से विद्यमान है और शायद यही वजह रही होगी कि अस्ताचलगामी सूर्य की उपासना से शुरू होकर उदित सूर्य के अर्घ्य के साथ इस व्रत का समापन किया जाता होगा।
इस लेख के शीर्षक में बिहार वासियों का जिक्र शायद क्षेत्र विशेशकी बात लगे, क्योंकि यह पर्व आज पूरे देश ही नहीं दुनिया के कई हिस्से तक पहुंच गया है पर इसका श्रेय तो बिहार वासियों को ही जाता है। इसके लिए उनका जिक्र तो स्वाभाविक ही है। बिहार वासियों का इस देश को ऐसे अद्भुत एवं अनूठे त्यौहार की भेंट के लिए हृदय से अभिवादन तो बनता है। बहरहाल इस आत्मानुशासन ,सामाजिक समरसता एवं लोकआस्था के अनूठे एवं पावन पर्व की आप सभी को हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनाएँ।

.
.
.

.

.

.

.

Please share

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!