सियासी संग्राम: “मंगरूआ” के अबकी लुटिया नाहीं, पूरा बर्तन डूबे वाला बा….


अखिलानंद तिवारी
बलिया।
एक और विधानसभा की पड़ताल…। ए विधानसभा में त “मंगरूआ” के चारू ओर चर्चा बा। आखिर काहे ना रही, राजनीति शास्त्र से उ परास्नातक ह औरी ओके अपन जनाधार के एहसास बा। सियासी पैंतरा भी बखूबी जाने ला, भले चुनावी उठापटक में अबकी “मंगरूआ” के राजनीतिक करियर दाव पर बा, लेकिन नेतागिरी में इ चलत रहेला। निराश भईला के जरूरत नईखे, लोगन से रिश्ता जोड़े के गुंजाइश बा। चुनावी साल ह, जनता प सबकुछ न्योछावर करेके बा। इ बात सुनते भगेलू काका तबाक से कहलन, सही समझत बानी रऊआं, साढ़े चार साल से त जनता “मंगरूआ” के खोज-खोज के थक गईल बिया। अब जाके बाढ़ में फुर्रसत मिलल बा। भाई हो “मंगरूआ” के अबकी लुटिया नाहीं, पूरा बर्तन डूबे वाला बा। लेकिन “मंगरूआ” बुझत नईखे।

“मंगरूआ” के समर्थक ताल ठोकत बाडऩ, कहत बाडऩ कि जनता नराज औरी खुश होत रहे ले। सबसे बड़ ताकत त पइसा बा। एहिजा त जातिवाद के सिक्का चलेला औरी चुनाव के करीब आवते सिर चढ़के बोलेला। एही से गाड़ी रफ्तार पकड़ ली। हर बेरी के तरह भोली-भाली जनता के चिकनी-चुपड़ी बात से झांसा में लेके आपन किस्मत आजमावे के बा।
काका फिर बोल पड़लन, ए बुड़बक जनता एतना नासमझ नईखे। अब सभे केहु नेतीगीरी समझत बा। लच्छेदार जुबान और मीठी मुस्कान अबकी कामे ना आई। चुनाव दूर बा, लेकिन नेताजी लोग अबे से कनेक्शन जोड़ता, लेकिन जनता में सियासी करेंट आवत नइखे। अब बाढ़ के बाद चुनाव के इंतजार बा।

राजनीतिक करियर के शुरूआत में खूब ईमानदार बनल रहे “मंगरूआ”। तीन बार चुनाव लड़ल, तब जाके प्रदेश के बड़की पंचायत में पहुंचल। तब सत्ता ना रहला के रोना रोवलन। सार्वजनिक जीवन में सबसे बड़ा मायाबी, लोगन के सुख-दुख में सबसे बड़ हमदर्द बन जनता में पूजाए लगलन। लेकिन ऊंचा ओहदा पर पहुंचते सबके बिल्कुल बिसार दिहलन। केहुके पीड़ा सुनल त दूर, ओसे सीधे मुंह बात कईल भी बंद हो गईल। इ छोटी-छोटी चूक उनका खातिर नासूर बनल बा। चर्चा बा कि नेताजी एगो विशेष वर्ग के चंद लोगन खातिन जरूर कुछ कईले बाडऩ। उहो उनका प जान छिड़कत बाडऩ। तब काका कहलन, देखीं अब “मंगरूआ” के रूतबा औरी भेष बदल गईल बा। लकदक खाादी में सज-धज के अपना भाग्य के समृद्ध करे में उ रात-दिन जुटल बाडऩ औरी ए काम में उनके मुकाम हासिल हो गईल बा।
आज “मंगरूआ” के एही से अपना पद के बड़ा गुमान बा, लेकिन चुनाव आवते यश-अपयश के लेके उहो परेशान बा। उ दिन याद बा, देके संतोष सबके, जनता में रो देले रहे। झोली फैला के जनता से एक रुपया ले ले रहे, रुपया ना त कफन दीं, इ बात के नारा रहे। लेकिन अइसन दूरी बनल लोगन से कि सब थू-थू करेके मजबूर बा। हिया में सबका दर्द बा दबल, अब उनका खातिर जिया में नइखे नेह केहुके। “मंगरूआ” भैया अबकी बेरी फिर विस चुनाव के बारी बा। ऐसे पहले सभे केहु “मंगरूआ” के गुन गावत बा। सब कहता अब हटाई, तूड़ीं और डरेणीं ए “मंगरूआ” के, पद मिलते गजबे रंग बदलले बा। सबके करेजा में टीस उभरता एकर बोली-भाषा उलटल बा। जनता के एतना नाराजगी के बाद भी “मंगरूआ” बुझत नईखे।

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