सियासी मैदान : क्या ! इस बार भी पूर्वांचल तय करेगा सूबे का मुख्यमंत्री..

विधानसभा चुनाव में स्थानीय मुद्दे उठेंगे या फिर चेहरों पर पड़ेगा वोट..
बलिया। पूर्वांचलवासी हर बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनाने में अपनी भूमिका निभाते हैं। कहा जाता है कि यूपी व दिल्ली के सत्ता का रास्ता पूर्वांचल से होकर गुजरता है। दोनों की दिशा और दशा पूर्वांचल के मतदाता ही तय करते हैं। एक बार फिर देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने जा रहा है। लेकिन क्या बिचारी जनता सरकार के कार्यों से संतुष्ट है ? मतदाताओं ने जिन्हें पूरा मौका दिया, क्या उन्होंने उनके साथ न्याय किया है ? पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद भी अगर विकास मुद्दा है तो दोषी कौन जनता या सरकार ? पिछले विस चुनाव में उठाए गए मुद्दे आज भी लोगों के दिलों दिमाग में कौंध रहे हैं।
हम बात कर रहे हैं पूर्वांचल के अंतिम जिले बलिया की, जो बिहार से सटा है। यहां समस्याएं कम नहीं हुई, बल्कि और बढ़ी हैं। जनता पहले भी सड़क, स्वास्थ्य और आधुनिक शिक्षा को लेकर सुबकती थी, आज भी इसकी मार झेल रही है। पूरा जनपद आर्सेनिक की जद में था, अब भी है। राष्ट्रीय राजमार्ग- 31 आज पहले से भी अधिक बदहाल है। संपर्क मार्गों की स्थिति अति दयनीय है। बिजली और पानी के लिए जनता की जंग जारी है। जिले में स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर लोगों को छला जा रहा है। चिकित्सकों की कमी बरकरार है। सरकारी अस्पतालों में गरीबों के इलाज, दवा, जांच, नि:शुल्क भोजन, दूध आदि के नाम पर लूट-खसोट किसी से छूपा नहीं है। सरकारी डॉक्टर निजी प्रैक्टिस में मशगूल हैं। जांच तथा आपरेशन के नाम पर आम आदमी का खून चूसा जा रहा है। पिछले पांच साल में यहां कुछ भी नहीं बदला। आज भी शहर में अतिक्रमण जस का तस है। सरकार ने कुछ हद तक पशु तस्करी पर रोक लगाया। लेकिन उसकी जगह बॉर्डर पर बालू तस्करी एवं आर्थिक अपराध में ले लिया। यह खाकी और खादी के संरक्षण में फलता- फूलता रहा। आम जनता खून के आंसू रोती रही।
एक नजर विधानसभा चुनाव 2012 पर डालें तो अखिलेश यादव की सरकार बनाने में पूर्वांचलवासियों का अहम रोल था। तब सपा को पूर्वांचल के काशी क्षेत्र के 10 जनपदों की कुल 61 सीटों में से 39 सीटों पर जीत मिली थी और बसपा मुखिया मायावती को सत्ता से बाहर होना पड़ा था। उस समय भी जनता ने इन्हीं समस्याओं से उब कर सत्ता परिवर्तन किया था। सपा और बसपा की सरकार से जब पूर्वांचल के लोगों को न्याय नहीं मिला, तो वर्ष 2017 में अखिलेश यादव की सरकार का भी यही हश्र जनता ने किया। तब चुनाव में बीजेपी ने अकेले अपने दम पर 34 सीटों पर जीत दर्ज कर समाजवादी पार्टी को पूर्वांचल में 12 सीटों पर ही समेट दिया। इस बार जनता का मूड समझना थोड़ा कठिन है। क्या इस बार जनता भाजपा सरकार को पुन: सत्ता में लाएगी या कुछ और होने वाला है ? लेकिन एक बात तय है कि सत्ता की कुर्सी तक वही पहुंच पाएगा, जो पूर्वांचल का गढ़ जीतेगा।
इस बार विधानसभा चुनाव के सियासी आंकड़े किस तरफ इशारा कर रहे हैं। क्या अखिलेश यादव एवं ओमप्रकाश राजभर के गठबंधन का असर इन जिलों में देखने को मिलेगा ?
हम बात करें कांग्रेस की तो यूपी विस चुनाव 2012 में सपा के समर्थन के बावजूद कांग्रेस ने महज तीन सीटों पर जीत दर्ज की थी। लेकिन वर्ष 2017 में सभी सीटें गंवाने के बाद शून्य पर पहुंच गई। इस बार भी कांग्रेस के उम्मीदवारों में निराशा है। बसपा में भी पहले की तरह करेंट नहीं है। उम्मीदवारों और कार्यकर्ताओं में उत्साह की कमी है।
उधर भाजपा की पिछले लोकसभा एवं विधानसभा में हुई अप्रत्याशित जीत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की देन रही है। लोगों का मानना है कि मोदी का जादू, उनकी राष्ट्रभक्ति, ईमानदारी एवं राजनीतिक दबदबे की वजह से भारतीय जनता पार्टी को यूपी सहित कई प्रांतों में फतह हासिल हुई थी। लेकिन सवाल यह है कि देश व प्रदेश में हुए बड़े नीतिगत फैसलों व विकास कार्यों को लेकर क्या यह दबदबा एवं मोदी का जादू इस बार भी कायम रहेगा ?
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क्या स्थानीय मुद्दे तय करेंगे जीत-हार..?
बलिया। पूर्वांचल के काशी क्षेत्र के 10 जिलों में 61 विधानसभा सीटों पर मुख्य लड़ाई मानी जाती है। जिसमें वाराणसी की आठ, आजमगढ़ की 10, बलिया सात, जौनपुर नौ, मऊ चार, गाजीपुर सात, चंदौली आठ, मिर्जापुर पांच, सोनभद्र चार और भदोही की तीन सीटें शामिल हैं। इस बार पूर्वांचल के मतदाता उम्मीदवारों के जीत-हार का फैसला करेंगे। लेकिन इन जनपदों में वोटर स्थानीय मुद्दे और विकास को लेकर अपना वोट डालेंगे या फिर मोदी व योगी के नाम पर वोट पड़ेगा..?

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