सूने घर आज भी राह देखते हैं..,बंद दरवाजे बुलाते हैं, पर कोई नहीं आता…

बलिया। “गली के मोड़ पे सूना सा कोई दरवाजा, तरसती आंखों से रस्ता किसी का देखेगा..।” भूपेन हजारिका की नज्म (गीत) बहुतों को आज याद आ रही है। क्योंकि वर्तमान में गांव, मुहल्ले, बस्ती और रास्ते बेजान से लगने लगे है। कई घरों में ताले पड़े हैं, तो कुछ घरों में बुजुर्ग जीवन-यापन कर रहे हैं। ज्यादातर घरों से बच्चों का कोलाहल और युवाओं की चौपाल अपना स्वरूप खो चुकी है। हकीकत जानने के लिए…किसी दिन सुबह उठकर एक बार इसका जायज़ा लेने निकलिए..कितने घरों में अगली पीढ़ी के बच्चे रह रहे हैं? कितने बाहर निकलकर नोएडा, गुडग़ांव, पूना, बेंगलुरु, गुजरात, चंडीगढ़, बॉम्बे, कोलकता, मद्रास, हैदराबाद, बड़ौदा जैसे बड़े शहरों में जाकर बस गए हैं?
कल आप एक बार उन गली मोहल्लों से पैदल निकलिएगा, जहां से आप बचपन में स्कूल जाते समय या दोस्तों के संग मस्ती करते हुए निकलते थे। तिरछी नजऱों से झांकिए.. हर घर की ओर आपको एक चुपचाप सी सुनसानियत मिलेगी, न कोई आवाज़, न बच्चों का शोर, बस किसी किसी घर के बाहर या खिड़की में आते जाते लोगों को ताकते बूढ़े जरूर मिल जायेंगे। आखिर इन सूने होते घरों और खाली होते मुहल्लों के कारण क्या हैं? भौतिकवादी युग में हर व्यक्ति चाहता है कि उसके एक नहीं तो ज्यादा से ज्यादा दो बच्चे हों और बेहतर से बेहतर पढ़े-लिखें।
उनको लगता है या फिर दूसरे लोग उसको ऐसा महसूस कराने लगते हैं कि छोटे शहर या कस्बे में पढऩे से उनके बच्चे का कैरियर खराब हो जाएगा या फिर बच्चा बिगड़ जाएगा। बस यहीं से बच्चे निकल जाते हैं बड़े शहरों के होस्टलों में। अब भले ही दिल्ली और उस छोटे शहर में उसी क्लास का सिलेबस और किताबें वही हों मगर मानसिक दबाव सा आ जाता है, बड़े शहर में पढऩे भेजने का। हालांकि इतना बाहर भेजने पर भी मुश्किल से एक प्रतिशत बच्चे आईआईटी, पीएमटी या कलैट वगैरह की परीक्षा पास कर पाते हैं…। फिर वही मां- बाप बाकी बच्चों का पेमेंट सीट पर इंजीनियरिंग, मेडिकल या फिर बिजऩेस मैनेजमेंट में दाखिला कराते हैं। चार साल बाहर पढ़ते-पढ़ते बच्चे बड़े शहरों के माहौल में रच बस जाते हैं। फिर वहीं नौकरी ढूंढ लेते हैं । सहपाठियों से शादी भी कर लेते हैं। घर वालों को मजबूरी में शादी के लिए हां करना ही पड़ता है, अपनी इज्जत बचानी है तो, अन्यथा शादी वह करेंगे ही, अपने इच्छित साथी से। अब त्यौहारों पर घर आते हैं, माँ -बाप के पास सिर्फ रस्म अदायगी के लिए। माँ -बाप भी सभी को अपने बच्चों के बारे में गर्व से बताते हैं। दो तीन साल तक उनके पैकेज के बारे में बताते हैं। एक साल, दो साल, कुछ साल बीत गए। मां बाप बूढ़े हो रहे हैं। बच्चों ने लोन लेकर बड़े शहरों में फ्लैट ले लिए हैं। अब अपना फ्लैट है, तो त्योहारों पर भी जाना बंद हो जाता है।
अब तो कोई जरूरी शादी ब्याह में ही आते -जाते हैं। अब शादी ब्याह तो बेंकट हाल में होते हैं तो मुहल्ले में और घर जाने की भी ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती है। होटल में ही रह लेते हैं। हाँ शादी विवाह में कोई मुहल्ले वाला पूछ भी ले कि भाई अब कम आते-जाते हो, तो छोटे शहर, छोटे माहौल और बच्चों की पढ़ाई का उलाहना देकर बोल देते हैं कि अब यहां रखा ही क्या है?
खैर, बेटे बहुओं के साथ फ्लैट में शहर में रहने लगे हैं। अब फ्लैट में तो इतनी जगह होती नहीं कि बूढ़े खांसते बीमार माँ -बाप को साथ में रखा जाए। बेचारे पड़े रहते हैं अपने बनाए या पैतृक मकानों में वापस आकरं। कोई बच्चा बागवान पिक्चर की तरह मां -बाप को आधा – आधा रखने को भी तैयार नहीं। अब साहब, घर खाली- खाली, मकान खाली -खाली और धीरे धीरे मुहल्ला खाली हो रहा है। अब ऐसे में छोटे शहरों में कुकुरमुत्तों की तरह उग आए प्रॉपर्टी डीलरों की गिद्ध जैसी निगाह इन खाली होते मकानों पर पड़ती है। वो इन बच्चों को घुमा फिरा कर उनके मकान के रेट समझाने शुरू करते हैं। उनको गणित समझाते हैं कि कैसे घर बेचकर फ्लैट का लोन खत्म किया जा सकता है। एक प्लाट भी लिया जा सकता है।
साथ ही ये किसी बड़े लाला को इन खाली होते मकानों में मार्केट और गोदामों का सुनहरा भविष्य दिखाने लगते हैं। बाबू जी और अम्मा को भी बेटे बहू के साथ बड़े शहर में रहकर आराम से मज़ा लेने के सपने दिखाकर मकान बेचने को तैयार कर लेते हैं। आप स्वयं खुद अपने ऐसे पड़ोसी के मकान पर नजऱ रखते हैं। खरीद कर डाल देते हैं कि कब मार्केट बनाएंगे या गोदाम, जबकि आपका खुद का बेटा छोड़कर पूना की आईटी कंपनी में काम कर रहा है, इसलिए आप खुद भी इसमें नहीं बस पाएंगे।
हर दूसरा घर, हर तीसरा परिवार सभी के बच्चे बाहर निकल गए हैं। वही बड़े शहर में मकान ले लिया है। बच्चे पढ़ रहे हैं,अब वो वापस नहीं आयेंगे। छोटे शहर में रखा ही क्या है। इंग्लिश मीडियम स्कूल नहीं है, हॉबी क्लासेज नहीं है, आईआईटी/पीएमटी की कोचिंग नहीं है। मॉल नहीं है, माहौल नहीं है, कुछ नहीं है साहब। आखिर इनके बिना जीवन कैसे चलेगा? पर कभी यूपीएससी सिविल सर्विसेज का रिजल्ट उठा कर देखिएगा, सबसे ज्यादा लोग ऐसे छोटे शहरों से ही मिलेंगे। बस मन का वहम है। मेरे जैसे लोगों के मन के किसी कोने में होता है कि भले ही बेटा कहीं फ्लैट खरीद ले, मगर रहे अपने उसी छोटे शहर या गांव में अपने लोगों के बीच में। पर जैसे ही मन की बात रखते हैं, बुद्धिजीवी अभिजात्य पड़ोसी समझाने आ जाते है कि अरे पागल हो गये हो, यहाँ बसोगे, यहां क्या रखा है? वो भी गिद्ध की तरह मकान बिकने का इंतज़ार करते हैं, बस सीधे कह नहीं सकते। अब ये मॉल, ये बड़े स्कूल, ये बड़े टॉवर वाले मकान सिर्फ इनसे तो जि़न्दगी नहीं चलती। एक वक्त बुढ़ापा ऐसा आता है जब आपको अपनों की ज़रूरत होती है। ये अपने आपको छोटे शहरों या गांवों में मिल सकते हैं, फ्लैटों की रेजीडेंट वेलफेयर एसोसिएशन में नहीं। कोलकाता, दिल्ली, मुंबई, पुणे, चंडीगढ़, नौएडा, गुडग़ांव, बेंगलुरु में देखा है कि वहां शव यात्रा चार कंधों पर नहीं बल्कि एक खुली गाड़ी में पीछे शीशे की केबिन में जाती है, सीधे शमशान, एक दो रिश्तेदार बस और सब खत्म। भाईसाब ये खाली होते मकान, ये सूने होते मुहल्ले, इन्हें सिर्फ प्रोपेर्टी की नजऱ से मत देखिए, बल्कि जीवन की खोती जीवंतता की नजऱ से देखिए। आप पड़ोसी विहीन हो रहे हैं। आप वीरान हो रहे हैं।
आज गांव सूने हो चुके हैं
शहर कराह रहे हैं।
सूने घर आज भी राह देखते हैं.. बंद दरवाजे बुलाते हैं पर कोई नहीं आता..।
भूपेन हजारिका का यह गीत याद आता है…
गली के मोड़ पे.. सूना सा कोई दरवाजा
तरसती आंखों से रस्ता किसी का देखेगा
निगाह दूर तलक.. जा के लौट आयेगी
करोगे याद तो हर बात याद आएगी।
सब समझाइए, बसाइए लोगों को छोटे शहरों और जन्मस्थानों के प्रति मोह जगाइए, प्रेम जगाइए। पढऩे वाले तो सब जगह पढ़ लेते हैं।
-राजेश जायसवाल…।

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