भाग्य बदल सकता है, लेकिन हरि इच्छा नहीं..
बलिया। चतुर्मास महायज्ञ के दौरान प्रवचन करते हुए संत जीयर स्वामी ने कहा कि गुरु, श्रेष्ठजन और पति के वचनों की अवहेलना नहीं करनी चाहिए। इनके वचनों की अवज्ञा से जीवन में संकट आता है। किसी खास परिवेश में उत्पन्न परिस्थितियों के दरम्यान श्रेष्ठजनों की बातों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए, क्योंकि वह अनुभव से परिपक्व होते हैं। आवेश में लिए गए निर्णय हितकर नहीं होते। आवेश की स्थिति में बुद्धि स्थिर नहीं होती। अस्थिर बुद्धि दुःख का कारण होती है। श्री जीयर स्वामी ने सती के देह त्याग की चर्चा करते हुए कहा कि दक्ष प्रजापति के यज्ञ में शिव का भाग नहीं देख सती क्रोधित हो गई। उन्होंने अपने पिता को कोसते हुए कहा कि भोलेनाथ, जो राम तत्त्व में ही लीन रहते हैं, उनसे अकारण द्रोह कर अपने यज्ञ में उनको हिस्सा नहीं दिया। दो अक्षर शिव का नाम लेने से पतितों का उद्धार हो जाता है। ऐसे शिव को आपने अपमानित किया। सती ने उसी स्थान पर पद्मासन में बैठ शंकर जी का ध्यान किया और योग-साधना द्वारा शरीर त्याग दिया। उनके साथ आए शिव के गण इस दृश्य को देख दक्ष के वध के लिए उद्यत हो गए। उसी वक्त यज्ञाचार्य भृगु जी ने अग्नि में आहूति दी, जिससे रिपुसंज्ञक उत्पन्न हुए। उन्होंने शिव गणों को मारकर भगा दिया। इसकी सूचना नारद जी ने कैलाश पर विराजमान शिव को रोते हुए दी। भोलेनाथ क्रोधित हो अपने केश खोले । एक जटा तोड़ पृथ्वी पर पटक दिए, जिससे वीरभद्र (सोखा बाबा) पैदा हुए। वीरभ्रद शिवगणों के साथ यज्ञ में पहुंचे। यज्ञ पुनः शुरू हो चुका था। उन्होंने यज्ञाचार्य भृगु की दाढ़ी-मूँछ नोच ली। दक्ष की गर्दन ऐठ अग्नि में डाल दिए। यज्ञ तहस-नहस हो गया। स्वामी जी ने कहा कि भाग्य बदल सकता है, लेकिन हरि इच्छा नहीं। सती द्वारा राम की परीक्षा लेना उनकी भारी भूल थी। उन्होंने कहा कि परमात्मा, गुरु और संत की परीक्षा नहीं लेनी चाहिए। शंकर ने सती को माना किया था कि वे राम की परीक्षा न लें। पत्नी – वियोग में भ्रमण करते दशरथ – नन्दन परात्पर ब्रह्म है, जिनका ध्यान शिवजी सदा करते रहते हैं। “सबकर परमप्रकासक जोई। राम अनादि अवध–पति सोई।” लेकिन सत्ती शंकर की एक न सुनी, जिसका खामियाजा उन्हें भोगना पड़ा अतः पति की बात इस्त्री को माननी चाहिए उसी तरह श्रेष्ठ एवं गुरु की बात सभी व्यक्ति को माननी चाहिए।