ज़मीन से उठे थे जॉनी वॉकर : छाबड़ा

वाराणसी/मुंबई। ग़ुरबत से लड़ते और खून-पसीना बहाते हुए जब कोई बुलंदी पर पहुंचता है तो उसकी हस्ती दूसरों से कुछ फ़र्क होती है। तब वो लड़का चौदह साल का था, सपने देखता था, बड़ा फिल्म स्टार बनेगा। उस दौर का मशहूर कॉमेडियन नूर मोहम्मद चार्ली उसका हीरो था। लेकिन जेब में फूटी-कौड़ी नहीं. पढ़ाई-लिखाई के नाम पर क़रीब क़रीब जीरो। फ़कीरी में जीता पंद्रह लोगों का परिवार. इनमें से पांच तो ख़त्म ही गए। कमाने वाले सिर्फ अब्बू, और तब तो दुखों का पहाड़ टूट पड़ा, जब वो कपड़ा मिल ही बंद हो गयी जहां अब्बू नौकरी करते थे। तब उस लड़के ने ज़िंदगी से लड़ने का बीड़ा उठाया। एक ख़ास आवाज़ में कभी सब्ज़ी बेची तो कभी आईसक्रीम, अख़बार भी लगाया। मतलब ये कि तरह-तरह के पापड़ बेले। फ़िल्म स्टूडियो के चक्कर भी लगाए। सुना तो ये भी गया कि उसने करीब बीस फिल्मों में चार-पांच रूपये की दिहाड़ी पर बतौर एक्स्ट्रा काम भी किया। लेकिन क़िस्मत ने उसे एक दिन बस कंडक्टर बना दिया। पैसेंजर्स का मूड फ्रेश करने के लिए वो उन्हें कभी चुटकुले सुना कर हंसाता, तो कभी मिमिक्री करता, तो कभी शेरो-शायरी भी। सब खुश रहने लगे उससे. कोई उसे बदरू कहता तो कोई मिर्ज़ा। मगर उसका असली नाम था बदरूद्दीन जमालुद्दीन क़ाज़ी।
एक दिन बदरू रोज़ की तरह सबको हंसा रहा था। उसी बस में सवार एक शख़्स बहुत ध्यान से उस पेंसिल जैसी पतली मूंछ वाले बदरू का मुआयना कर रहा था। उस शख़्स का नाम था, बलराज साहनी। वो उन दिनों गुरुदत्त की ‘बाज़ी’ (1951) के संवाद लिख रहे थे। ये बड़ी फिल्म थी, देवानंद-गीताबाली-कल्पना कार्तिक। बलराज बहुत प्रभावित हुए बदरू से। बोले, कल गुरुदत्त स्टूडियो में मिलो और बदरू पहुंच गए वहां। पियक्कड़ की एक्टिंग करने लगे और शायद वो रुकते ही नहीं अगर बलराज साहनी न कहते। बदरू अब बस भी करो. गुरू को अचंभा हुआ। बलराज बोले, मैंने ही इसे ऐसा करने को कहा था। इसे काम दीजिए। ‘बाज़ी’ तब तक पूरी होने को थी। लेकिन बदरू की लियाक़त देखकर गुरू पसीज गए। एक रोल क्रीएट कर दिया। लेकिन गुरू ने नाम बदल दिया, बदरू नहीं जॉनी वॉकर, व्हिस्की के एक प्रसिद्ध ब्रांड पर. हालांकि कुछ विद्वानों का कहना है कि जॉनी वॉकर इससे पहले के.आसिफ की दिलीप कुमार-नरगिस अभिनित ‘हलचल’ में भी पियक्कड़ का रोल कर चुके थे। बहरहाल, ये बात तो श्योर थी की बलराज ही उन्हें गुरू के पास ले गए थे। बताया जाता है जॉनी पांच वक़्त के नमाज़ी रहे और ज़िंदगी में शराब को कभी हाथ नहीं लगाया।
बहरहाल, उसके बाद जॉनी वॉकर गुरूदत्त फिल्म्स का स्थाई हिस्सा बन गए और तब तक रहे जब तक गुरू ज़िंदा रहे. साहब बीवी गुलाम को छोड़ कर सभी फिल्मों में रहे, जाल, आर-पार, प्यासा, कागज़ के फूल, मिस्टर एंड मिसेस 55, चौदहवीं का चाँद, सीआईडी, बहारें फिर भी आएँगी. गुरू भी उनसे बहुत इम्प्रेस रहे। बस बता दिया करते थे, तुम्हारा रोल ये है, ऐसे करना है और अगर कोई बेहतर आईडिया तुम्हारे दिमाग में है तो वैसा करो. उस ज़माने में टॉप कॉमेडियन या तो ऊपर जा चुके थे या फिर बंटवारे के दौरान पाकिस्तान चले गए थे। मारुति और शेख़ वगैरह ‘सी’ क्लास फ़िल्में करते थे। यानी जॉनी के लिए मैदान खाली था। वो जल्दी ही टॉप क्लास कॉमेडियन के रूप में स्थापित हो गए। डिस्ट्रीब्यूटर दबाव बनाने लगे, जॉनी ज़रूर होना चाहिए, ज़रूरत पड़े तो उनके लिए रोल क्रिएट करो। 1954 में ‘आर-पार’ की शूटिंग के दौरान को-आर्टिस्ट नूर से उनका इश्क हुआ। नूर उस ज़माने की प्रसिद्ध हीरोइन शकीला की छोटी बहन थी। नूर के घर वाले उनकी शादी की ख़िलाफ़ थे। तब दोनों ने भाग कर शादी कर ली। लेकिन फिल्म इंडस्ट्री ने नूर नाम की एक खूबसूरत और बेहद टैलेंटेड एक्ट्रेस को खो दिया।
जॉनी की एक्टिंग का एक अलग ही अंदाज़ था। मदमस्त और बहका-बहका हुआ, तरंग चढ़ी हो जैसे. उस दौर के लोग बताते थे, वो असल ज़िंदगी में भी ऐसे ही थे, बस कंडक्टरी छूटने के बाद भी उन्होंने अपनी आदत नहीं छोड़ी. जहाँ बैठते थे, रौनक लगाए रखते, चुटकुलों और मिमिक्री से. हर सिचुएशन के लिए शेर हाज़िर. हाज़िर जवाबी और टाइमिंग भी गज़ब की. उनके रोल हीरो से कमतर नहीं रहे। बल्कि ‘अजी बस शुक्रिया’ (1958) में उन्हें गीताबाली के अपोजिट हीरो का रोल मिला. गीता उस ज़माने की नामी एक्ट्रेस होती थीं. लेकिन उन्हें तसल्ली नहीं हुई। उनकी लोकप्रियता को भुनाने के लिए जब जब उन्हें हीरो के ऑफर आये तो झट से हां कर दी। छूमंतर, दुनिया रंग रंगीली, जॉनी वॉकर, मिस्टर कार्टून एम.ए.,खोटा पैसा, नया पैसा, ज़रा बचके और रिक्शावाला। इनमें ज़्यादातर में उनकी हीरोइन श्यामा रहीं। मगर ये फ़िल्में बहुत कामयाब नहीं हो पायीं. साठ के सालों के मध्य उन्हें अहसास हुआ कि अब तो भी चालीस साल के करीब होने को हैं और दर्शक उन्हें अब हीरो के रूप में कबूल नहीं कर रहे हैं। उन्होंने हीरो का मोह छोड़ फिर से हीरो के साइड-किक के किरदार पकड़ने शुरू कर दिए। उनके किरदार शिष्ट रहे, स्क्रिप्ट में वेल-डिफ़ाइन भी। डायलॉग राइटर्स ने भी अच्छी लाईनें दीं। बेहतरीन कॉमेडी की एवज़ में जॉनी को दो बार फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला, बिमल रॉय की मधुमती (1958) और आत्माराम की शिकार (1968) के लिए.
जॉनी सिर्फ किरदारों में ही नहीं गानों में भी खूब ज़िंदा रहे. अय दिल है मुश्किल है जीना यहाँ ये है बॉम्बे मेरी जां (सीआईडी)…ना ना ना तौबा काये कू प्यार करता (आर-पार)….आल लाईन क्लीयर (चोरी चोरी)… जंगल में मोर नाचा किसने देखा(मधुमती)…किसने चिलमन से मारा (बात एक रात की)…जाने कहां मेरा जिगर गया जी अभी अभी यहीं था किधर गया जी (मिस्टर एंड मिसेस 55)… मैं बम्बई का बाबू नाम मेरा अनजाना (नया दौर)…गरीब जान के तुम मुझे न भुला देना तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना (छूमंतर)… हम भी अगर बच्चे होते (दूर की आवाज़)…मेरा यार बना है दूल्हा (चौदहवीं का चांद)…कड़की तेरा नाम है क्लर्की (अजी बस शुक्रिया)…ख़ास बात ये रही कि उन पर फिल्माए ज़्यादातर गानों को आवाज़ मोहम्मद रफ़ी ने दी. प्यासा का गाना याद करें- चम्पी तेल मालिश, सर जो तेरा चकराए…इसमें ‘चम्पी तेल मालिश’ जॉनी की आवाज़ है और उसके बाद रफ़ी. रफ़ी के अनुरोध पर ही गाने में जॉनी की आवाज़ को भी हिस्सा बनाया गया. एक और ख़ास बात, रफ़ी साहब उनके लिए एक अलग ही अंदाज़ में आवाज़ दी. एक मज़ेदार वाकया है. ‘अमरदीप’ में देवानंद, पद्मिनी और जॉनी पर एक गाना फ़िल्माया गया था – इस जहाँ का प्यार झूठा, प्यार का इज़हार झूठा…देवानंद के लिए प्लेबैक मन्ना डे ने दिया था और जॉनी की आवाज़ बने थे रफ़ी. ये जॉनी का जलवा ही था. इसी फिल्म में जॉनी पर फिल्माया एक और गाना है – अब डर किसका है प्यारे… इसी सिलसिले में याद आता है जॉनी पर फ़िल्माया ‘दुनिया’ (1968) का गाना – तू ही मेरी लक्ष्मी तू ही मेरी छाया…मज़े की बात ये है कि जॉनी के साथ जो सह कलाकार थीं उनका नाम था लक्ष्मी छाया।
साठ के आख़िरी सालों में जॉनी भाई को कम फ़िल्में मिलीं। दरअसल महमूद का डंका बजने लगा। महमूद की शबनम और जौहर महमूद इन गोवा जैसी बी क्लास फ़िल्में भी हिट होने लगीं। लेकिन जॉनी को इससे कोई गिला नहीं रहा. हर आदमी का एक वक़्त मुकर्रर होता है जो धीरे-धीरे गुज़र जाता है। उन्होंने तो महमूद की ‘छोटे नवाब’ में काम भी किया. जॉनी ने करीब तीन सौ फ़िल्में कीं। कुछ मशहूर नाम हैं, आधियाँ, टैक्सी ड्राइवर, मैरीन ड्राइव, मिस कोकाकोला, मस्त कलंदर, रेलवे प्लेटफॉर्म, श्रीमती 420, गेटवे ऑफ़ इंडिया, 12’O क्लॉक, अमरदीप, घर संसार, कालापानी, ब्लैक कैट, पैगाम, एक फूल चार कांटे, आशिक, घर बसा के देखो, मेरे महबूब, उस्तादों के उस्ताद, शहनाई, दिल दिया दर्द लिया, सगाई, पालकी, नाईट इन लंदन, हसीना मान जायेगी, मेरे हुज़ूर, दो रास्ते, दुश्मन, गोपी, राजा जानी, प्रतिज्ञा आदि. उन्होंने हर बड़े एक्टर के साथ काम किया।
1971 में जॉनी राजेश खन्ना के साथ ‘आनंद’ में एक छोटे से रोल में दिखे – ईसा भाई सूरतवाला, थिएटर के मालिक आनंद ने उनको मुरारी लाल और उन्होंने आनंद को जयचंद कहा. जब आनंद अंतिम सांस ले रहा था तो ईसा भाई कहते हैं – जयचंद जब तक मैं पर्दा नहीं गिराऊंगा तब तक तुम ऊपर नहीं जा सकते… ये कह कर रुला दिया था कॉमेडियन जॉनी ने. अस्सी के सालों में तो जॉनी लगभग गायब ही हो गए। अचानक उनका नाम तब सुना गया, जब उन्होंने होम प्रोडक्शन ‘पहुंचे हुए लोग’ डायरेक्ट की. मगर पिट गयी फिल्म. जॉनी फिर सुप्तावस्था में चले गए. फिर कई साल बाद उन्होंने ‘चाची 420’ (1997) में वापसी की, मेकअप आर्टिस्ट के किरदार में, कमलहासन को औरत बनाया।
अगली बार जॉनी का नाम 29 जुलाई 2003 को सुर्खियों में आया, 79 साल के जॉनी फ़ानी दुनिया से रुख़सत हो गए. सुना था, उस दिन दिलीप कुमार उन्हें फ़ोन करने ही जा रहे थे कि बहुत दिन से मुलाक़ात नहीं हुई, लेकिन तभी जॉनी के घर से ही फोन आ गया, बदरुद्दीन इंतकाल फ़रमा गए हैं।

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