बलिया। ‘जाति’ भारतीय समाज का प्रतीक है। जातीय समानता, आपसी प्रेम व सद्भाव को लेकर समाज सुधारकों ने काफी प्रयास किए हैं। लेकिन इस पर राजनीति प्रभावी है। फूट डालों राज करो की नीति अपनाई जा रही है। समाज को खंड-खंड किया जा रहा है। राजनीति बहुउद्देश्यीय सुविधा बन गई है। अब सियासत का कोई पैमाना नहीं रहा..। धर्म पर सियासत, कर्म पर सियासत, जन पर सियासत, तन पर सियासत, जीत पर सियासत, हार पर सियासत..। सबसे प्रभावी ‘जाति’ पर सियासत है। इससे शर्मिंदगी भी शर्मिंदा है। सत्ता सुख के लिए रीति-नीति बदलने में तनिक भी देर न करने वाले नेतागण जाति को मुद्दा बना अपना हित साधते हैँ।
विधानसभा चुनाव 2022 की हलचल जनपद में भी शुरू है। प्रमुख दल जातीय समीकरण को चुस्त-दुरूस्त करने में जुटे हैं। अनुमान है कि दलों के लिए मुख्य मुद्दा जाति पर आधारित विकास होगा। यह उनके हित में भी माना जा रहा है। पूर्वांचल की राजनीति में जातियों की भूमिका हमेशा से अहम रही है। राजनीतिक पार्टियां जाति को एक मुद्दा बनाकर हर बार अपना हित साधने का काम की है। अब २०२२ के चुनाव में भी जाति एक अहम मुद्दा बनेगा। यही वजह है कि टिकट देते समय जातीय समीकरण का भी विश£ेषण किया जा रहा है। दल के मुखिया इसका पूरा ख्याल रखते हुए उम्मीदवार का चयन करते हैं। कौन सी सीट पर किस जाति का बोलबाला है? किसकी पैठ जनता में बेजोड़ है? इसका आंकलन कर ही टिकट का बंटवारा होता है। ऐसा न होने पर दलों को कई बार झटका भी लगा है। क्योंकि प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं ईमानदार क्षवि भी जातीय समीकरण के आगे अपना प्रभाव छोडऩे में निष्फल हो जाता है।
देखा जाए तो कभी क्षेत्रवाद ने ही जातिवाद को बढ़ावा देने में अपनी अहम भूमिका निभाई थी। अब यह अपनी जड़े जमा चुका है। विधानसभा चुनाव-२०२२ में सत्ता की कुंजी अपने हाथ में लेने के लिए भाजपा से लेकर सपा, बसपा, सुभासपा, आप समेत अन्य दल अभी से जोड़-तोड़ की राजनीति में सक्रिय दिखाई दे रहे हैं। मैदान में उतरने से पहले नेताजी जाति विशेष के हितैषी बन बहुत कुछ करने का दिखावा कर रहे हैं। जिले के सातों विधानसभा क्षेत्रों में जातीय समीकरण हावी है। सभी विधानसभाओं में अलग-अलग जातियों का प्रभाव है। प्रदेश की सबसे बड़ी पंचायत तक जनप्रतिनिधियों को भेजने में ब्राह्मण, क्षत्रीय, दलित, यादव, राजभर, भूमिहार, बिंद, मल्लाह और मुसलमानों की मुख्य भूमिका मानी जाती है। आलम यह है कि जिस विस क्षेत्र में जिन जातियों का वर्चस्व है, दल प्रमुख उसी जाति के प्रभावशाली व्यक्ति को वहां से मैदान में उतारने की चाहत रखते हैं। अब तक के चुनावों में ज्यादातर विधानसभा क्षेत्रों में यही देखने को मिला है।
राजनीतिक के जानकारों की माने तो अब चुनाव में जाति एक मुद्दा मात्र है। जातिवाद को बढ़ावा देने से राष्ट्र और सर्वसमाज का नहीं, बल्कि हित नेताओं का होता है? अब भी जहां एकजुटता है वहां राजनीति करने वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को आपस में बांटने में लगे है, ताकि इनकी दल गल सके। अब जीत के लिए जातिवाद ही कुंजी है। इस अंधी दौड़ में जनमानस का हाल भी कुछ ऐसा ही है कि वोट जाति पर देना है। हित चाहे कोई साधे इससे हमे क्या लेना-देना है..?